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Showing posts from May, 2020

महाप्रभु जी निजवार्ता- तृतीय वार्ता प्रसंग

 तृतीय वार्ता प्रसंग :  सो आगे एक बडो नगर आयो । वा ठोर एक बडो नगरशेठ हतो ताकी देह छूटी ही । वाके चार बेटा हते सो तीनि बेटा तो बडे हते ओर सबसे छोटे दामोदरदास हुते । तब उन बडे भाईनने बिचार कीनो जो होई तो यह द्रव्य सब अपनो अपनो बांटि लेई। काहे में ? द्रव्य हे सो क्लेशकों मूल हे तातें आपसमें हमारो हित न रहेगो। तो दामोदरदासजी तो छोटे हते । तातें विनसों कहे जो क्यो बाबा तूं अपने बांटे को द्रव्य लेयगो? तब दामोदरदास कहें जो में तो कुछ समझत नाहीं । तुम बडे हो आछो जानो सो करो । तब विनने द्रव्य सगरो घरमेतें काढिके व द्रव्य के चारि बांटा करे ओर चारोंनके नामनकी चिट्ठी लिखिकें वाके ऊपर डारी । सो जा जाके नामकी चिट्ठी आई सो सो वाने लियो । तब दामोदरदाससों कहें जो तुमारे द्रव्य तुम जहाँ कहो तहाँ धरे । सो या समें दामोदरदास गोखमें बेठे हते । इतनेमें में श्री आचार्य महाप्रभु आप वा मारग होयकें निकसे । सो ऊपरतें दामोदरदासकी दृष्टि परी। तब उहांतें तत्काल ऊठिकें दोरे । कुछ द्रव्य घरकी सुधि न रही।  सो  आवतही आपको साष्टांग दंडवत की तब आप श्रीमुखतें कहें जो दमला तूँ आयो? तब दामोदरदासनें क...

महाप्रभु जी निजवार्ता- द्वितीया वार्ता प्रसंग

द्वितीया वार्ता प्रसंग:   सो प्रथम मार्गमें कोइ एक महापुरुष के स्थल हतो। वह महापुरुष बोहोत वृद्ध हतो । सो आप ओरनकुं सेवक करतो। तब वानें यह मनमें बिचारी जो मोकों कोइ एसो सेवर्त मिले जाकों यह कार्य सांपों । एसेमें श्री आचार्य जी महाप्रभुजी आप वाके आश्रममें पधारे। सो देखतेही वह महापुरुष अपनें मनमें बोहोत प्रसन्न भयो ओर मनमें कही जो में विचारत हतो सो श्रीठाकुरजीने मेरो मनोरथ सिद्ध कियो । तब वा महापुरुष ने श्री आचार्य महाप्रभु नसों को जो तुम मेरे सेवक होउ तो यह सगरो मठ हे सो में आपको सोंपों। . अब हों वृद्ध भयो हों तातें यह कार्य सब आप करो। तब आप कहें जो बोहोत आछो। श्री आचार्य महाप्रभु आप तो ईश्वर हे सब जानत हैं या कारणके लिये तो आप पधारे ही हे । पाछें आप रात्रिको उहाँही वाके आश्रममें पोढे ओर वह महापुरुष हू सोयो । तब वाको श्री ठाकुरजी स्वप्न में कहे जो अरे मूर्ख मेंनें तो तेरे उद्धारके लिये इनको यहां पठाये हुते ताको तो तूं उलटो सेवक करत हे ? जो तोकों अपनों कार्य करनो होय तो तूं इनकी शरण जाइयो। ए तो साक्षात् मेरो स्वरूप हे ओर भक्ति मार्ग के उद्धारके लिये प्रगट भये हैं । सो यह सुनिकें वह म...

महाप्रभु जी निजवार्ता - प्रथम वार्ता प्रसंग

॥ श्रीकृष्णाय नमः ॥ ॥ श्रीगोपीजनवल्लभाय नमः ॥  श्रीमद्भगवदनानलावतार - श्रीमदखण्ड भूमण्डलाचार्यवर्य श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ॥श्रीमंगलाचरणम् ॥   सौन्दर्य निजहद्गतं प्रकटितं खीगूढभावात्मकं पुंरूपं च पुनस्तदंतरगतं प्रावीविशत् स्वप्रिये॥  संश्लिष्टावुभयोर्बभौ रसमयः कृष्णो हि तत्साक्षिकम् रूपं तत् त्रितयात्मक परमभिध्येयं सदा वल्लभम् ॥१॥  सायं कुञ्जालयस्थासनमुपविलसत्स्वर्णपात्रं सुधौत राजद्यज्ञोपवीतं परितनुवसनं गौरमम्भोजवक्त्रम् ॥  प्राणायाम नासापुटनिहितकर कर्णराज विमुक्त वन्दे धन्मीलिताक्षं मृगमद तिलकं विठलेश सुकेशम् ॥२॥ प्रथम वार्ता प्रसंग:   श्रीआचार्यजीमहाप्रभुजी आप जिन दैवीजीवनके उद्धारार्थ भूतलपर प्रगट भए, उन दैवीजीवनकों भगवानतें बिछुरे बोहोत काल भयो हतो । गद्य के श्लोक में आप श्रीआचार्यजी कहे हैं जो (सहस्त्र परिवत्सर इत्यादि)। जब  श्री ठाकुरजी की लीला में दया उपजी तब अपने श्रीमुखसों एक तेज स्वरूप कल्पक विनका आज्ञा दीनी जो तुम श्रीआचार्यजीमहाप्रभुनको देह धारण करके भूतल प्रगट होय दैवीजीवनको उद्धार करो। वे जीव बोहोत कालतें भटकत हे ओर अन्य मार्गमें भ्रमत...

महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी का जीवन चरित्र

महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी जीवन चरित्र  श्रीवल्लभाचार्यजी (1479-1531) भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधारस्तंभ एवं पुष्टिमार्ग  के प्रणेता थे। महाप्रभुजी श्री वल्लभाचार्य का प्राकट्य वैशाख कृष्ण एकादशी को चम्पारण्य (रायपुर, छत्तीसगढ़) में हुआ था। सोमयाजी कुल के तैलंग ब्राह्मण लक्ष्मण भट्ट और माता इलम्मागारू के यहां जन्मे वल्लभाचार्य का अधिकांश समय काशी, प्रयाग और वृंदावन में ही बीता। काशी में ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई और वहीं उन्होंने अपने मत का उपदेश भी दिया। मात्र 7 वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत धारण करने के बाद 4 माह में ही वेद, उपनिषद आदि शास्त्रों का अध्ययन किया तथा 11 वर्ष की आयु में अपनी अद्भुत प्रतिभा का प्रमाण देते हुए दक्षिणांचल में विजय नगर के राजा कृष्णदेव की राज्यसभा में उपस्थित होकर संपूर्ण विद्वानों को निरुत्तर कर दिया था। उनके अलौकिक तेज एवं प्रतिभा से प्रभावित होकर राजा ने उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठापित किया। इसका राज्यसभा में उपस्थित सभी संप्रदाय के आचार्यों ने अनुमोदन किया। आचार्य पद प्राप्त करने के बाद आपने तीन बार भारत भ्रमण ...

श्रीनाथ जी का इतिहास

गोलोक धाम में मणिरत्नों से सुशोभित श्रीगोवर्द्धन है। वहाँ गिरिराज की कंदरा में श्री ठाकुरजी गोवर्द्धनाथजी, श्रीस्वामिनीजी और ब्रज भक्तों के साथ रसमयी लीला करते है। वह नित्य लीला है। वहाँ आचार्य जी महाप्रभु श्री वल्लभाधीश श्री ठाकुरजी की सदा सर्वदा सेवा करते है। एक बार श्री ठाकुरजी ने श्री वल्लभाचार्य महाप्रभु को देवी जीवों के उद्धार के लिए धरती पर प्रकट होने की आज्ञा दी। श्री ठाकुरजी श्रीस्वामिनीजी, ब्रज भक्तो के युथों और लीला-सामग्री के साथ स्वयं श्री ब्रज में प्रकट होने का आशवासन दिया।इस आशवासन के अनुरूप विक्रम संवत्  1466  ई. स.  1409  की श्रावण कृष्ण तीज रविवार के दिन सूर्योदय के समय श्री गोवर्धननाथ का प्राकट्य गिरिराज गोवर्धन पर हुआ। यह वही स्वरूप था जिस स्वरूप से इन्द्र का मान-मर्दन करने के लिए भगवान्, श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों की पूजा स्वीकार की और अन्नकूट की सामग्री आरोगी थी।श्री गोवर्धननाथजी के सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य एक साथ नहीं हुआ था पहले वाम भुजा का प्राकट्य हुआ, फिर मुखारविन्द का और बाद में सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य हुआ। सर्वप्रथम श्रावण ...