महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी जीवन चरित्र
श्रीवल्लभाचार्यजी (1479-1531) भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधारस्तंभ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता थे।
महाप्रभुजी श्री वल्लभाचार्य का प्राकट्य वैशाख कृष्ण एकादशी को चम्पारण्य (रायपुर, छत्तीसगढ़) में हुआ था। सोमयाजी कुल के तैलंग ब्राह्मण लक्ष्मण भट्ट और माता इलम्मागारू के यहां जन्मे वल्लभाचार्य का अधिकांश समय काशी, प्रयाग और वृंदावन में ही बीता। काशी में ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई और वहीं उन्होंने अपने मत का उपदेश भी दिया।
मात्र 7 वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत धारण करने के बाद 4 माह में ही वेद, उपनिषद आदि शास्त्रों का अध्ययन किया तथा 11 वर्ष की आयु में अपनी अद्भुत प्रतिभा का प्रमाण देते हुए दक्षिणांचल में विजय नगर के राजा कृष्णदेव की राज्यसभा में उपस्थित होकर संपूर्ण विद्वानों को निरुत्तर कर दिया था। उनके अलौकिक तेज एवं प्रतिभा से प्रभावित होकर राजा ने उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठापित किया। इसका राज्यसभा में उपस्थित सभी संप्रदाय के आचार्यों ने अनुमोदन किया। आचार्य पद प्राप्त करने के बाद आपने तीन बार भारत भ्रमण कर शुद्धाद्वैत पुष्टिमार्ग संप्रदाय का प्रचार कर शिष्य सृष्टि की अभिवृद्धि की तथा 84 भागवत पारायण की। जिन-जिन स्थानों पर पारायण की थी वे आज भी 84 बैठक के नाम से जानी जाती हैं तथा वहां जाने पर शांति का अनुभव होता है।
उनकी पत्नी का नाम महालक्ष्मी था तथा उनके दो पुत्र थे गोपीनाथ और श्रीविट्ठलनाथ। रुद्र संप्रदाय के विल्वमंगलाचार्यजी द्वारा इन्हें अष्टादशाक्षर गोपालमंत्र की दीक्षा दी गई और त्रिदंड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्रतीर्थ से प्राप्त हुई। वल्लभाचार्य के 84 शिष्य थे जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, कृष्णदास, कुंभनदास और परमानंद दास है।
आचार्य महाप्रभु वल्लभाचार्य के दिव्य संदेश किसी जाति विशेष या धर्म विशेष के लिए न होकर प्राणीमात्र के कल्याण के लिए हैं। प्रतिवर्ष वैशाख कृष्ण एकादशी को जगद्गुरु श्रीमद् वल्लभाचार्यजी का प्राकट्य उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है।
श्री वल्लभाचार्यजी प्रमुख ग्रन्थ
श्री वल्लभाचार्य ने अनेक भाष्यों, ग्रंथों, नामावलियों, एवं स्तोत्रों की रचना की है, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित ये सोलह सम्मिलित हैं, जिन्हें ‘षोडश ग्रन्थ’ के नाम से जाना जाता है –
१. यमुनाष्टक २. बालबोध ३. सिद्धान्त मुक्तावली ४. पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेद
५. सिद्धान्तरहस्य ६. नवरत्नस्तोत्र ७. अन्तःकरणप्रबोध ८. विवेकधैर्याश्रय
९. श्रीकृष्णाश्रय १०. चतुःश्लोकी ११. भक्तिवर्धिनी १२. जलभेद
१३. पंचपद्यानि १४. संन्यासनिर्णय १५. निरोधलक्षण १६. सेवाफल
श्री वल्लभाचार्य जी के शिष्य
१. कुंभनदास २. सूरदास ३. कृष्णदास ४. परमानंददास
श्री गुसाईंजी विट्ठलनाथजी के शिष्य
५. गोविन्द स्वामी ६. छीत स्वामी ७. चतुर्भुजदास ८. नंददास
सूरदासजी की सच्ची भक्ति एवं पद-रचना की निपुणता देख अति विनयी सूरदासजी को भागवत् कथा श्रवण कराकर भगवल्लीलागान की ओर उन्मुख किया तथा उन्हें श्रीनाथजीके मन्दिर की कीर्त्तन-सेवा सौंपी। उन्हें तत्व ज्ञान एवं लीला भेद भी बतलाया-श्रीवल्लभगुरू तत्त्व सुनायो लीला-भेद बतायो [सूरसारावली]। सूर की गुरु के प्रति निष्ठा दृष्टव्य है-
"भरोसो दृढ इन चरनन केरो। श्रीवल्लभ-नख-चंद्र-छटा बिनु सब जग मांझ अंधेरो॥"
श्रीवल्लभके प्रताप से प्रमत्त कुम्भनदासजी तो सम्राट अकबर तक का मान-मर्दन करने में नहीं झिझके- परमानन्ददासजी के भावपूर्ण पद का श्रवण कर महाप्रभु कई दिनों तक बेसुध पड़े रहे। मान्यता है कि उपास्य श्रीनाथजी ने कलि-मल-ग्रसित जीवों का उद्धार हेतु श्रीवल्लभाचार्यजी को दुर्लभ आत्म-निवेदन-मन्त्र प्रदान किया और गोकुल के ठकुरानी घाट पर यमुना महारानी ने दर्शन देकर कृतार्थ किया।
श्रीवल्लभाचार्यजी (1479-1531) भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधारस्तंभ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता थे।
मात्र 7 वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत धारण करने के बाद 4 माह में ही वेद, उपनिषद आदि शास्त्रों का अध्ययन किया तथा 11 वर्ष की आयु में अपनी अद्भुत प्रतिभा का प्रमाण देते हुए दक्षिणांचल में विजय नगर के राजा कृष्णदेव की राज्यसभा में उपस्थित होकर संपूर्ण विद्वानों को निरुत्तर कर दिया था। उनके अलौकिक तेज एवं प्रतिभा से प्रभावित होकर राजा ने उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठापित किया। इसका राज्यसभा में उपस्थित सभी संप्रदाय के आचार्यों ने अनुमोदन किया। आचार्य पद प्राप्त करने के बाद आपने तीन बार भारत भ्रमण कर शुद्धाद्वैत पुष्टिमार्ग संप्रदाय का प्रचार कर शिष्य सृष्टि की अभिवृद्धि की तथा 84 भागवत पारायण की। जिन-जिन स्थानों पर पारायण की थी वे आज भी 84 बैठक के नाम से जानी जाती हैं तथा वहां जाने पर शांति का अनुभव होता है।
प्रबल प्रचंड मायावाद खंड- खंड कियो-
पंडित वितुण्ड झुण्ड गण्ड मतवारे ते।
दौर- दौर दुरे जात दूर दूर देशन में-
देख- देख विपत्ति प्रताप उर भारे ते।
भूतल श्रीवल्लभ कृपा निधान-
जीवन को देत दान भक्त किधों तारे ते।
आनंद के कंद कोटिचंद से उमंग तेज-
देव सुख संपत्ति विपत्ति सब टारे ते।
आचार्य महाप्रभु वल्लभाचार्य के दिव्य संदेश किसी जाति विशेष या धर्म विशेष के लिए न होकर प्राणीमात्र के कल्याण के लिए हैं। प्रतिवर्ष वैशाख कृष्ण एकादशी को जगद्गुरु श्रीमद् वल्लभाचार्यजी का प्राकट्य उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है।
श्री वल्लभाचार्य ने अनेक भाष्यों, ग्रंथों, नामावलियों, एवं स्तोत्रों की रचना की है, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित ये सोलह सम्मिलित हैं, जिन्हें ‘षोडश ग्रन्थ’ के नाम से जाना जाता है –
१. यमुनाष्टक २. बालबोध ३. सिद्धान्त मुक्तावली ४. पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेद
५. सिद्धान्तरहस्य ६. नवरत्नस्तोत्र ७. अन्तःकरणप्रबोध ८. विवेकधैर्याश्रय
९. श्रीकृष्णाश्रय १०. चतुःश्लोकी ११. भक्तिवर्धिनी १२. जलभेद
१३. पंचपद्यानि १४. संन्यासनिर्णय १५. निरोधलक्षण १६. सेवाफल
श्री वल्लभाचार्य जी के शिष्य
१. कुंभनदास २. सूरदास ३. कृष्णदास ४. परमानंददास
श्री गुसाईंजी विट्ठलनाथजी के शिष्य
५. गोविन्द स्वामी ६. छीत स्वामी ७. चतुर्भुजदास ८. नंददास
सूरदासजी की सच्ची भक्ति एवं पद-रचना की निपुणता देख अति विनयी सूरदासजी को भागवत् कथा श्रवण कराकर भगवल्लीलागान की ओर उन्मुख किया तथा उन्हें श्रीनाथजीके मन्दिर की कीर्त्तन-सेवा सौंपी। उन्हें तत्व ज्ञान एवं लीला भेद भी बतलाया-श्रीवल्लभगुरू तत्त्व सुनायो लीला-भेद बतायो [सूरसारावली]। सूर की गुरु के प्रति निष्ठा दृष्टव्य है-
"भरोसो दृढ इन चरनन केरो। श्रीवल्लभ-नख-चंद्र-छटा बिनु सब जग मांझ अंधेरो॥"
श्रीवल्लभके प्रताप से प्रमत्त कुम्भनदासजी तो सम्राट अकबर तक का मान-मर्दन करने में नहीं झिझके- परमानन्ददासजी के भावपूर्ण पद का श्रवण कर महाप्रभु कई दिनों तक बेसुध पड़े रहे। मान्यता है कि उपास्य श्रीनाथजी ने कलि-मल-ग्रसित जीवों का उद्धार हेतु श्रीवल्लभाचार्यजी को दुर्लभ आत्म-निवेदन-मन्त्र प्रदान किया और गोकुल के ठकुरानी घाट पर यमुना महारानी ने दर्शन देकर कृतार्थ किया।
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