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महाप्रभु जी निजवार्ता- द्वितीया वार्ता प्रसंग

द्वितीया वार्ता प्रसंग:  सो प्रथम मार्गमें कोइ एक महापुरुष के स्थल हतो। वह महापुरुष बोहोत वृद्ध हतो । सो आप ओरनकुं सेवक करतो। तब वानें यह मनमें बिचारी जो मोकों कोइ एसो सेवर्त मिले जाकों यह कार्य सांपों । एसेमें श्री आचार्य जी महाप्रभुजी आप वाके आश्रममें पधारे। सो देखतेही वह महापुरुष अपनें मनमें बोहोत प्रसन्न भयो ओर मनमें कही जो में विचारत हतो सो श्रीठाकुरजीने मेरो मनोरथ सिद्ध कियो । तब वा महापुरुष ने श्री आचार्य महाप्रभु नसों को जो तुम मेरे सेवक होउ तो यह सगरो मठ हे सो में आपको सोंपों। .


अब हों वृद्ध भयो हों तातें यह कार्य सब आप करो। तब आप कहें जो बोहोत आछो। श्री आचार्य महाप्रभु आप तो ईश्वर हे सब जानत हैं या कारणके लिये तो आप पधारे ही हे । पाछें आप रात्रिको उहाँही वाके आश्रममें पोढे ओर वह महापुरुष हू सोयो । तब वाको श्री ठाकुरजी स्वप्न में कहे जो अरे मूर्ख मेंनें तो तेरे उद्धारके लिये इनको यहां पठाये हुते ताको तो तूं उलटो सेवक करत हे ? जो तोकों अपनों कार्य करनो होय तो तूं इनकी शरण जाइयो। ए तो साक्षात् मेरो स्वरूप हे ओर भक्ति मार्ग के उद्धारके लिये प्रगट भये हैं । सो यह सुनिकें वह महापुरुष तत्काल जागिपर्यो ओर ऊठिकें कों आयतें श्री आचार्य महाप्रभुन को साष्टांग दंडवत करि, ओर हाथ जोरिकें कह्यो मैंने आपको स्वरूप नहीं जाने । आप तो साक्षात् पूर्णपुरुषोत्तम हो । मेरे उद्धारके लिए पधारे हो सो मेरो अंगीकार करोगे। में आपकी शरण हूँ। तब श्री आचार्य जी आप कहें जो हाँ हाँ तुमारो उद्धार करेंगे। कहा भयो जो तुमने कछू कह्यो? तब सवारे श्री आचार्य जी आपने वाकों नाम सुनायकें पाछे आप उहांते आगे पधारे। 

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