॥ श्रीकृष्णाय नमः ॥
॥ श्रीगोपीजनवल्लभाय नमः ॥
श्रीमद्भगवदनानलावतार - श्रीमदखण्ड भूमण्डलाचार्यवर्य
श्रीमद्वल्लभाचार्यजी
॥श्रीमंगलाचरणम् ॥
सौन्दर्य निजहद्गतं प्रकटितं खीगूढभावात्मकं पुंरूपं च पुनस्तदंतरगतं प्रावीविशत् स्वप्रिये॥
संश्लिष्टावुभयोर्बभौ रसमयः कृष्णो हि तत्साक्षिकम् रूपं तत् त्रितयात्मक परमभिध्येयं सदा वल्लभम् ॥१॥
सायं कुञ्जालयस्थासनमुपविलसत्स्वर्णपात्रं सुधौत राजद्यज्ञोपवीतं परितनुवसनं गौरमम्भोजवक्त्रम् ॥
प्राणायाम नासापुटनिहितकर कर्णराज विमुक्त वन्दे धन्मीलिताक्षं मृगमद तिलकं विठलेश सुकेशम् ॥२॥
प्रथम वार्ता प्रसंग: श्रीआचार्यजीमहाप्रभुजी आप जिन दैवीजीवनके उद्धारार्थ भूतलपर प्रगट भए, उन दैवीजीवनकों भगवानतें बिछुरे बोहोत काल भयो हतो । गद्य के श्लोक में आप श्रीआचार्यजी कहे हैं जो (सहस्त्र परिवत्सर इत्यादि)। जब श्री ठाकुरजी की लीला में दया उपजी तब अपने श्रीमुखसों एक तेज स्वरूप कल्पक विनका आज्ञा दीनी जो तुम श्रीआचार्यजीमहाप्रभुनको देह धारण करके भूतल प्रगट होय दैवीजीवनको उद्धार करो। वे जीव बोहोत कालतें भटकत हे ओर अन्य मार्गमें भ्रमत हे, परि कहुँ उनको स्वास्थ्य होत नाहीं। याहीतें जो जा वस्तुके वे अधिकारी हैं सो वस्तु कहूँ विनकों दिसत नाहीं । तातें वे जीव परिभ्रमण कर रहें हैं । जिनके लिये आप प्रगट होयके विनको उद्धार करो। तब श्री आचार्य महाप्रभु आप प्रगट भये । सो या नीतियों । साक्षात् पूर्णपुरुषोत्तम को जो तेजोमय धाम हे ताको आधार अग्नि हे । ता अग्निकुण्ड में तें आप प्रगट भए। तातें सब कोई आपको अग्निरूप कहत हैं । आप वा अग्नि जो साक्षात् पूर्णपुरुषोत्तमके मुखारविंदमें आधिदैविकरूप अग्नि हे ता अग्नी स्वरूप आप श्रीआचार्यजीमहाप्रभुनको हे । सो अग्निस्वरूप एसे हे जो जाके समीप जैये तो सीतलता होय, ओर दूरि जैये तो ताप होय। ओर लौकीकाग्नि तो एसो होय हैं जो जाके समीप जैये तो ताप होय ओर दूरि जैये तो सीतलता होय। यह तो पूर्णपुरुषोत्तमके मुखारविंद रूप अग्नि हे तातें सब पदार्थ को भोग करत हैं ।

ताही तें श्री आचार्य जीमहाप्रभुनको नाम श्रीगुसांईजी सर्वोत्तममें (यज्ञभोक्ता) कहे हे ओर श्रीवल्लभाष्टकमें हूं " वस्तु: कृष्ण एव" कहे हें। यातें निश्चय करिके श्री आचार्यजीमहाप्रभुनको श्री गोवर्धनधर जानो, यह श्रीगुसांईजी याहीतें कहें। श्री आचार्य जी आप मनुष्य देहको अंगीकार कियो हे ताको हेतु श्रीगुसांईजी सर्वोत्तम में (प्राकृतानुकृतिव्याजमोहितासुरमानुषः) कहे है। जो श्री आचार्य जी आप साक्षात् श्रीगोवर्धनधर होइके दरशन देइ तो सब प्राणीमात्र शरण आवें तामें आसुर हूँ आवें। तातें आप अपनो स्वरूप गोप्य राखें । जाते सब जगतकों मनुष्य को दर्शन होय ओर कहें जो ये बडे महापुरुष हे बडे पंडित हे इतनोही जाने, ओर दैवी जीवन को तो साक्षात् श्रीगोवर्धनधरके दर्शन होय। जब श्री आचार्य जी महाप्रभु आप ४० हाथके अग्निकुंडमेंतें चंपारण्य में संवत् १५३५ चैत्र (व्रज वैशाख) वदी ११ रविवार के दिन प्रगट भए तब श्री लक्ष्मण भटजी ओर श्रीइलंमाँगारुजी इनकों लेके घर पधारे । जब आप पांच वर्षक भये तब संवत् १५४० चैत्र वदी ९ रविवार के दिन यज्ञोपवीत धारण किये। पाछे चारों वेद, पुराण, सब शास्त्र, पढ गये । तातें लक्ष्मण भटजी को आश्चर्य भयो। तब लक्ष्मण भटजी सों श्री ठाकुरजीनें स्वप्न में कह्यो जो तुम संदेह काहेकों करत है ?
में साक्षात् तुमारे घर प्रगट भयो हूँ। कितनेक दिन पाछे श्रीबालाजीमें संवत् १५४६ चैत्र वदी ९ के दिन श्रीआचार्यजीमहाप्रभुनके ११ में वर्ष श्रीलक्ष्मणभटजीकू श्री ठाकुर जी के चरणारविंद की प्राप्ति भई। ताको कारण यहजो श्री आचार्य महाप्रभु नको तो पृथ्वीप्रदक्षिणा कर दैवी-जीवन को उद्धार करनो हे ओर दैवीजीव तो सब देशांतर में है। तातें जो श्री लक्ष्मण भटजी विराजत होय तो आप उनकी आज्ञा बिना केसें देशांतर को पधारे ओर श्री लक्ष्मण भटजी बालककों अकेले जायवेकी आज्ञा केसें देंहि? तातें यह स्वतंत्रता बिना दैवीजीवनको कार्य न होयगो। ता पाछे श्री आचार्य जी महाप्रभु संवत् १५४८ वैशाख वदी २ रोहिणी नक्षत्र के दिन माताजी की आज्ञा लेकें १३ वर्ष की उमर में आप घरतें प्रथमहीं पृथ्वी करनकों पधारें ॥
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